Sunday 25 October 2015

"मत्स्यावतार"

कभी कभी एस धरा 
की गति में रूचि नहीं रह जाती है,
जो पीना था यहाँ
पी लिया,अब कुछ
बाकी न रहा,
समुंदर की मछली
तालाब में बैचैन हो जाती है
कीचड़ मैं श्वास लेना
मुश्किल हो जाता है,
न तो खाद्य पधार्थ भाते है
न ही किताबे
सार जो था पी लिया
अब कुछ और चाहिए
शायद यहाँ नहीं 
कही और मिलेगा
नया स्वाद नया रोमांच
नया अनुभव
कुछ ऐसा जो अभी भी
बुद्ध,महावीर के धयान
में झलकता है
शायद उनके आँख खोलने
की देर है
और मेरे बंद करने की |

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