Tuesday 24 November 2015

"स्वागत है"
हमारे देखते देखते 
बचपन जवान हो जायेगा 
हम देखते रह जायेंगे 
और वे पंख फड़फड़ाकर 
उड़ जायेंगे । 
हम मन मसोसकर रह जायेंगे 
की कुछ सीखा ना पाये 
पर वे कब जीना सीख जायेंगे 
हम जान ना पाएंगे 
हमारी किताबे और ग्रन्थ 
रखे रह जायेंगे और वे 
कब उनकी  गंध ले जायेंगे 
हम जान ना पाएंगे 
कल तो वे तुतलाकर बोलते थे 
आज उनकी मिठास भरी बात सुनी 
कल क्या कह जायेंगे पता नहीं 
हमने उनको संतुलन सीखते देखा 
वे कब दौड़ जायेंगे पता नहीं 
कल उन्हें ठीक से बोलना न आता था 
कब सिटी बजकर भाग जायेंगे पता नहीं 
कल हर बात के लिए हमसे पूछते थे 
कब हमे समझाने लग जायेंगे पता नहीं 
हमे पता है ,तुम वापस शायद ही आओगे 
पर तुम्हारे द्वारा चितरी दीवारे 
हमे तुम्हारी याद दिलाएगी 
तुम्हारा बचपन याद आएगा 
और हमे फिर नई जिज्ञासा के,नये सपनो के 
स्वागत के लिए तैयार कर देगा 
स्वागत है ,स्वागत है ,स्वागत हैं 
हम पंखो को खोलना सिखाते हैं । 




Saturday 21 November 2015

"नमक का पुतला"

नमक का पुतला घबराया सा 
भाग रहा था ,
बदल घुमड़ रहे थे 
बिजली चमक रही थी 

नमक का पुतला अस्तित्व 
बचाने  की फ़िराक में था 
वह प्रकृति को  कोस रहा था 
बरसात क्यों होती हैं 
क्या प्रकृति को हमारी फ़िक्र नहीं 
नमक का पुतला तनाव में था 
अपने दुर्भाग्या पर रो रहा था 
आँसू उसे गला रहे थे 

तभी उसने बुद्ध  को देखा 
वे भी नमक के बने थे 
वे ध्यानस्थ होकर 
बारिश का इंतज़ार कर रहे थे 
नमक के पुतले ने पूछा 
आप गलने से डरते नहीं  
बुद्ध ने कहा -मैं नमक का पुतला नहीं 
इस संसार का नमक हुँ ,
पास ही ईसा खड़े मुस्कुरा रहे थे 
और यही कहानी 
रमकृष्ण परमहंस अपने 
शिष्यों को सुना रहे थे ।
Photograph: Prabhu Parmar

Photograph:Prabhu Parmar
"अनगिनत "

हमारे पास अनगिनत सांसे नहीं होती 
की नकारात्मक विचारो से उन्हें 
बर्बाद कर दे 

हमारे पास अनगिनत धड़कने नहीं होती 
की किसी से नफरत करने में 
उनको बर्बाद कर दे 

हमारे पास अनगिनत दिन नहीं होते 
  की किसी से डरने में बर्बाद  कर दे

आनंद ,साहस और धैर्य से भरपूर 
जीवन ही 
सांसो की,धड़कनो की,
समय की सच्ची पूजा है । 


"माँ "

पंख खुलने की पीड़ा सहनी होगी 
उड़ने का साहस  लाना होगा 
घोंसले से कूदना होगा 
नहीं तो माँ धकेल देगी 
घोंसले में आराम है 
माँ का नर्म एहसास है ,
माँ चाहती है ,की अब उड़ जाओ 
क्योकि अब घोंसला तो होगा 
पर माँ न होगी 
माँ अब घोंसले जैसी लघु नहीं 
संसार हो गयी हैं 
विराट हो गयी है 
अब माँ मुँह में खाना नहीं देगी 
अब माँ में स्वयं को ढूंढना होगा 
माँ को पाने लिए साथी ढूंढना होंगे 
उन्ही मैं माँ को ढूंढना होगा 
माँ ने विविधता दिखाई 
माँ ने उड़ना सिखाया 
अब मुझे माँ में ही उड़ना है 
गिरा तो भी माँ की गोद में ही गिरूंगा 
क्या हुआ गहरी नींद भी आ गई तो 
माँ की गोद ही ऐसी है। 

"देखा हैं "

मन को मैंने गहरी खाइयो में 
छुपते देखा हे 

जब किसी पर हँसना हो या 
किसी से तुलना करनी हो 

तब पर्वतो की ऊंचाइयों पर भी देखा है 
ऊंचाइयों पर खुश होते और 
खाइयो में मन को उदास होते देखा है। 

"पलायनवादी मन"

हर बात से ,हर कर्म से 
पलायन करता है मन 
श्रम से घबराता हे मन 
आराम को चाहता हे मन 
कुछ सीखना नहीं चाहता हे मन 
आत्मा जो निश्छल हैं ,एकग्रा है 
उसे ढकता है मन 
सच पर काला पर्दा है मन 
स्वार्थ सिद्धि के लिए 
मन को प्रसन्न करता है  मन 
हर मन दूसरे मन पर काबू 
पाना चाहता है 
मन दूसरे मन को लोभ देता है 
मन दूसरे मन को लुभाता है 
मन दूसरे मन पर राज करना 
चाहता है 
मन की दुनिया में सब राजा है 
सारे मन लड़ते है ,चालबाज़ी करते है 
पर जीतता कोई नहीं 
बस एक दूसरे को पीड़ा ,
घोर पीड़ा देते है। 

"अदभुत "

कालीदास में  काव्य बाद में 
उदित हुआ 
पहले तो वे उसी डाल  को काट रहे थे 
जिस पर वह बैठे थे ,

प्रयास ,धैर्य ,और श्रद्धा 
से जीवन में काव्य का जन्म होता है 
वह काव्य जो बरसो तक गाया जा सकें 
वह काव्य जिससे प्रेरणा मिले 
उसे पाने का अनुभव 
अदभुत होता है। 




"उपयोगी वस्तुऐ "

एक गिलहरी के लिए 
कुछ रेशे उपयोगी थे 
एक चिड़िया के लिए 
सूखी टहनियाँ उपयोगी थी 
मैंने देखा जो कुछ भी 
मेरे लिए उनुपयोगी था 
वह प्रकृति में अमूल्य था । 

"उसने कहा "

उसने कहा वह बहुत गरीब है ,
उस पर क़र्ज़ है 
वह परेशान है ,
मैं क्या कर सकता हुँ 
उसकी आवाज़ अस्तित्व मे गूंजी 
तभी उसने देखा एक कीट उसके 
पैरो के निचे आने वाला है ,
उसने एक पत्ते पर उसे उठाया 
और एक और रख दिया । 
वह अपने आप को धन्य 
महसूस कर रहा था।  

"मन "

मन कभी दोस्त नहीं होता
गर मरना हो , तो मन को
 मालिक बना लो
गर जीना  हो  तो सेवक बना लो
कभी भला न करेगा वह
कभी जीने न देगा
कहेगा बार बार मर
तेरे लिए नहीं है यह जहाँ,
सब तुझसे ताकतवर है
ज्ञानी है ,समर्थ है
तेज है ,चालक है
हमेशा हतोत्साहित करेगा
पर जैसे ही जागरण होगा 
मन विलुप्त हो जायेगा 
जागरण की रौशनी में 
सत्य उपलब्ध होता है । 


Saturday 7 November 2015

"मार्केटिंग"

मेरी टॉर्च  से जो दिख रहा था 
उसे ही सत्य मान  रहा था 
और तो और 
दूसरो को भी टॉर्च से 
वही रोशनी  करने को कह रहा था 
जहां मैं देख रहा था 
सभी को कह रहा था 
वही देखो जो  मैं देख रहा हुँ 
किताबें लिख रहा था 
लेख लिख रहा था 
कवितायेँ लिख रहा था 
शोर मचा रहा था 
देखो जो मैं देख रहा हुँ 
जानो जो मैं जान रहा हूँ 
सुनो जो मैं सुन रहा हूँ 
तभी मैने देखा 

आसमान में लालिमा छाने लगी 
धीरे धीरे अँधेरा दूर होने लगा 
रौशनी चारों  और छाने लगी 
सभी ने अपनी अपनी टॉर्च बुझा दी 
मैंने अपनी टोर्च की और देखा 
फिर सूरज  की और देखा ,और सोचा 
मैं रौशनी दिखा रहा था या 
टोर्च बेच रहा था 
अभी तक जो अँधेरा था 
उसने मुझे घेर रखा था या 
मेरी चेतना को।

"मोम का घोड़ा "

मोम के घोड़े से आग का 
दरिया पार  ना होगा 
छोटी छोटी आशाओ से 
चार कदम भी चला न 
जा सकेगा ,

मोम  के घोडे को छोड़ना होगा 
नंगे पैर ही आग पर 
दौड़ना होगा 
जब तुम मोम के घोडे 
से उतरोगे ,पाओगे की 
आग शीतल हो गई 

सिर्फ घोड़े से उतरने का साहस ही 
तुम्हे विजय दिलाएगा 
पर हम खुद से ज्यादा 
खुदा  से ज्यादा 
मोम के घोड़े पर 
विश्वास करते है ।



'अभिषेक"

कभी ऐसा लगता था 
जीवन कीचड़ से सराबोर है ,
अज्ञानता ,अहंकार ,भय की
 धड़कन का नाम ही  जीवन है ,

वह कीचड़ जब किसी पर उछलता 
तब सुख प्राप्त होता प्रतीत होता 
जीवन बस कीचड़ की होली 
बनकर रह गया 

कही किसी पल में 
अमृत की बून्द ,मस्तक पर गिरी 
और उसने वहां के  कीचड़ को धो दिया 

जब कीचड़ को यह पता चला तो 
वह और तेजी से 
उस मस्तक पर गिरी बून्द 
 पर  गिरने लगा 
अमृत की बून्द हंसी और उसने कहा 
मस्तक भाग्यवान है तु 
कभी न झुकना 
तेरा अभिषेक हो चूका है ।