जीवन — एक चुनौती, एक भ्रम, एक दर्पण
(दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक कविता)
जीवन,
कभी-कभी लगता है एक गहरा मज़ाक।
जैसे कोई अभिनेता,
जिसे मंच पर धकेल दिया गया हो
बिना स्क्रिप्ट, बिना किरदार,
बस — “जियो” कहकर।
हम हर दिन अर्थ ढूँढते हैं,
हर बात में कुछ संकेत,
कुछ "क्यों", कुछ "कब", कुछ "कहाँ" —
मानो ब्रह्मांड कोई उत्तर देने को बैठा हो।
पर सच यह है —
ब्रह्मांड मौन है।
ना उसे हमारी पीड़ा से फर्क पड़ता है,
ना हमारी प्रार्थनाओं से।
यह मूर्खता लगती है —
प्रेम में पड़ना,
सपने देखना,
योजनाएं बनाना —
जब हम जानते हैं कि अंत अटल है।
फिर भी…
मनुष्य वही है
जो इस मूर्खता को भी जीने योग्य बना देता है।
क्योंकि मनुष्य केवल जीव नहीं,
वो सचेत भ्रम है —
जो जानता है कि सब व्यर्थ है,
फिर भी मुस्कुराता है।
कभी-कभी जीवन से कुछ नहीं हो सकता,
और शायद यही सबसे बड़ा सत्य है।
पर जब हम इस निरर्थकता को स्वीकार करते हैं,
तो एक अजीब-सी शांति जन्म लेती है।
शांति —
जो किसी समाधान से नहीं,
बल्कि उस स्वीकार से आती है कि
हमें कुछ "करना" नहीं, बस "देखना" है।
मौन में छिपी आज़ादी
अर्थहीनता से डरने की नहीं,
उसे अपनाने की ज़रूरत है।
क्योंकि जब कुछ भी स्थायी नहीं,
तो सब कुछ संभव है।
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