कविता: "किरदार और लेखक की जुदा दुनिया"
किरदार जानता नहीं,
लेखक ने क्या लिखा है।
जो अब तक समझा,
वही सच माना है।
हर संवाद में ढूँढ़ा मैंने,
अपनी ज़िंदगी की झलक,
पर वह सच्चाई थी आधी,
या केवल एक छलक।
मुझे लगा मैं ही हूँ कहानी का सच,
हर भाव, हर दर्द मेरा ही है।
पर लेखक जानता है हर मोड़ को,
हर सही, हर गलत को।
वह देखता है परदे के उस पार,
जहाँ किरदार नहीं पहुँच पाता।
वह जानता है कब रोका, कब बढ़ाया,
कब छिपाया, कब दिखाया।
मैं तो बस एक परदा हूँ,
उसके लिखे हुए रंगों का।
वह रचता है जीवन,
मैं निभाता हूँ संगों का।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या मैं भी जान सकता हूँ?
उस सच को जो छुपा है,
उस गाथा को जो लिखा है।
पर शायद यही जीवन है,
जहाँ सब कुछ होता है देखा-देखी,
और असली कहानी कहीं रहती है,
लेखक की कलम की छाया-छाँव में कहीं।
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