जब मन नहीं सुनता
(एक आत्मचिंतनात्मक कविता)
जब मन नहीं सुनता,
तो मौन भी शोर बन जाता है।
चेतना कई बार समझाती है,
पर वह अपनी ही धुन में गाता है।
कहता है – "अभी नहीं, बाद में सोचेंगे,"
और उसी "बाद" में हम बहुत कुछ खो बैठते हैं।
छोटा-सा लालच, एक क्षण की जिद,
कभी-कभी जीवनभर का पछतावा बन जाती है।
जब मन आँखें मूँद लेता है,
तो राह के पत्थर पहाड़ बन जाते हैं।
और जो टाल दिया था सोचकर "कुछ नहीं होगा,"
वही बनकर सामने खड़ा हो जाता है —
विपदा की तरह।
वो विपदा जो बाहर से नहीं,
मन के भीतर ही उठती है।
एक तूफ़ान —
जो निर्णय नहीं, बल्कि विलंब से जन्मा होता है।
पर फिर भी...
हर गिरावट के पीछे एक दर्पण होता है,
जो दिखाता है — मन की मूर्खता,
और आत्मा की सच्चाई।
जो सीख ले,
वो फिर मन को साधना जान जाता है।
और जो बार-बार ठोकर खाकर भी न चेते,
वो केवल समय को दोष देता है।
मन हठी है, पर अज्ञानी नहीं,
उसे दिशा दो — तो वही बन जाए रक्षक।
नहीं तो…
मन जब नहीं सुनता,
तो विपदा केवल बाहर नहीं,
भीतर भी जन्म लेती है।
जीवन एक राह है, जिस पर हमें आनंद से चलना है |जो निरंतर बदल रहा है क्या हम उसे देख पा रहे है वो होश कहां है, वो शान्ति कहां है, वो सौन्दर्य कहां है जिसे हम खोज रहे है |भीतर की अकुशलता,भीतर का भय,भीतर की चिंता,भीतर का लालच हमारी बाहर की जिंदगी को प्रभावित करता है,अकुशलता बाहर नहीं भीतर होती है|भीतर की शांति हमे पारस पत्थर देती उसे हम जिसे भी छुआ दे वह सोना हो जाता है|-MANOJ PARMAR SIR
Sunday, 29 June 2025
जब मन नहीं सुनता
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