जीवन — एक महामूर्ख की गाथा है।
जो जितना जानता है,
उतना ही उलझता है।
जो जितना सोचता है,
उतना ही डूबता है।
हम दौड़ते हैं अर्थ की तलाश में,
जैसे रेत के टीले पर महल बनाना चाहते हों।
हम रोशनी चाहते हैं,
पर आँखें बंद कर लेते हैं,
कि कहीं सच की चुभन ना हो जाए।
हम खुद को ज्ञानी मानते हैं —
पर भूल जाते हैं कि
जो सत्य है,
वो न विचार में समाता है,
न भाषा में ठहरता है।
महामूर्ख वही है — जो सवाल पूछता है,
फिर खुद ही उन सवालों के जवाब गढ़ता है,
और उन पर ही विश्वास कर लेता है।
हम दुखी हैं क्योंकि
हमने जीवन से कुछ "होने" की उम्मीद पाल ली।
जैसे जीवन कोई डील हो —
देना-लेना, कारण-परिणाम।
लेकिन जीवन तो
एक मूक दर्शक है,
जो घट रहा है — बिना किसी पक्षपात,
बिना किसी वादे के।
और फिर भी,
हम इस महामूर्खता में जीते हैं
— हर दिन —
जैसे यह संसार हमारे लिए बना हो।
जैसे कोई देवता हमें देख रहा हो,
और हमारी योजनाओं पर ताली बजा रहा हो।
लेकिन फिर भी...
यही महामूर्खता,
कभी-कभी कविता बन जाती है।
एक प्रेम बन जाती है।
एक बच्ची की हँसी में खो जाती है।
या अकेलेपन की रात में
एक मोमबत्ती-सी टिमटिमाती है।
तो क्या हम सच में मूर्ख हैं?
या वही "महामूर्खता"
हमें मनुष्य बनाती है?
शायद यही सबसे बड़ा ज्ञान है —
कि हम कुछ नहीं जानते,
और यही स्वीकार कर पाना ही
बुद्धत्व की पहली सीढ़ी है।
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