जीवन — एक मूर्खता भरी चुनौती
(दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक चिंतन-कविता)
जीवन,
एक मूर्खता भरी चुनौती लगता है कभी-कभी।
जैसे किसी और ने रच दिया हो ये खेल,
और हमें फेंक दिया हो बिना निर्देश के,
"जा, जी ले — जैसे भी समझ आए।"
हर दिन उठते हैं एक पहेली के साथ,
हर निर्णय — एक अनिश्चितता का द्वार।
हम सोचते हैं कि हम चुनते हैं,
पर क्या सच में?
या बस घटनाओं की धूल में भटकते हैं?
कभी लगता है —
हम खुद ही अपना विरोधाभास हैं,
जो चाहते हैं, उससे डरते हैं,
और जो नहीं चाहिए, उसी में उलझते हैं।
मनोविज्ञान कहता है —
हमारा मन भविष्य की कल्पनाओं और अतीत की स्मृतियों में कैद है।
वर्तमान?
वो तो बस एक क्षणिक सन्नाटा है,
जिसे हम अनदेखा कर देते हैं।
कभी-कभी लगता है —
इस जीवन का कुछ नहीं कर सकते।
ना इसे पूरी तरह समझ सकते,
ना पूरी तरह बदल सकते।
और शायद…
यही समझ आरंभ है शांति का,
कि जीवन को "ठीक" नहीं करना,
उसे देखना है — बिना भागे, बिना जज किए।
नियंत्रण एक भ्रम है,
सार्थकता एक कथा।
पर चेतना —
वो मौन साक्षी है,
जो कहती है:
“होने दो — तुम देखो।”
अंत में स्वीकार:
शायद जीवन का सार यही है —
कि हम स्वीकार कर सकें उसकी अनिश्चितता, उसकी मूर्खता,
और फिर भी
हर सुबह उठें —
जैसे कोई बच्चा जो जानता है कि उसे सब नहीं पता,
पर फिर भी खेलना चाहता है।
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