"लेखक है भगवान"
(नाटक के मध्य, अभिनेता की पुकार)
नाटक चला मंच पर, मैं किरदार बना,
संवाद बोले, जैसे रटाया गया सपना।
भीड़ थी सामने, तालियाँ भी थीं,
पर अंदर ही अंदर कुछ खाली सी थीं।
मैं चिल्लाया — "लेखक! ये क्या रच दिया?"
"इस पात्र को क्यों इतना दुख दे दिया?"
"कभी प्रेम में धोखा, कभी अपनों से घात,
हर दृश्य में क्यों सिर्फ़ मेरा ही पतन?"
तभी परदे के पीछे से एक आवाज़ आई,
शब्द नहीं, पर जैसे आत्मा को छू जाए।
"तू अभिनेता है, मैं लेखक — मैं सृजनकार,
तेरा हर दुख, हर सुख है मेरी ही रचना का सार।"
"तू जो सह रहा है, वो किरदार का कर्म है,
तू निभा, तू जी, यही तो धर्म है।
तू मंच पर है, मैं मंच के पार,
मैंने जो लिखा, उसमें ही है तेरा आकार।"
"न बदलेगा दृश्य, न संवाद की रेखा,
तू निभा ले ये भूमिका, बस इतना ही देखा।
क्योंकि मैं लेखक हूँ — मैं ही विधाता,
हर किरदार की कहानी में छिपा है एक प्रभु-नाता।"
मैं चुप हो गया, सिर झुकाया,
अधूरे संवादों में भी अब अर्थ पाया।
लेखक ही है ईश्वर — अब मैं जान गया,
जो लिखा उसने, वही तो पहचान गया।
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