Sunday, 29 June 2025

"मन का धोखा"

 

"मन का धोखा"

मन को चाहिए बस आराम,
ना हलचल, ना काम।
ना चिंता की लहर हो,
ना परिवर्तन का कोई नाम।

ना उठना, ना गिरना,
ना खोना, ना पाना।
बस वहीं ठहरा रहे,
जहाँ कुछ हो जताना।

हर बार कहता — "थोड़ा सुकून,
थोड़ा सा और चैन मिल जाए।"
पर हर सुकून की राह में
कोई नई प्यास उग आए।

सुख की चादर ओढ़ के
छिपा लेता है हर दर्द को,
और फिर कहता है — "देख,
जीवन तो यहीं खत्म हो।"

वो नहीं चाहता तप,
आँसुओं की आग।
पर बिना जलन के कब मिला
अस्तित्व को कोई सुबोध राग?

मन तो हर बार भरमाता है,
कहता है — “यही है अंतिम ठौर।
पर सच्चाई कहीं और होती है,
जहाँ होता है जीवन का शोर।

अब जान लिया है मैंने,
ये आराम सिर्फ एक जाल है।
सुख की चाह एक भ्रम है,
जिसमें छिपा अकर्म का काल है।

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