"मन: एक झूठा दोस्त"
मन एक झूठा दोस्त
है,
साथ तो चलता है,
पर सच्चा नहीं।
जब ज़रूरत हो सहारे की,
तब ये सबसे पहले
बिछड़ता है कहीं।
कभी कहता है — "तू
श्रेष्ठ है",
कभी कहता — "तू कुछ भी
नहीं"।
कभी देता उम्मीदों के
पंख,
तो कभी तोड़ता सपनों
की छत कहीं।
मन ने ही कहा
— "वो तेरा है",
फिर वही मन बोला
— "सब छूटता है"।
हर बार इसकी माया
में फँसा,
हर बार दिल मेरा
ही टूटता है।
ये दोस्त बना तो बहुत
कुछ चाहा,
पर राह दिखा के
खुद ही भटका।
मोह, माया, क्रोध, भ्रम से
हर पल मन ने
ही तो लड़वाया।
पर अब मैं जान
गया हूँ ये खेल,
तेरे हर जाल का
मुझे अंदाज़ है।
अब न तू मेरी
सोच चलाएगा,
मेरे भीतर अब खुद
का राज है।
अब मैं तेरा दोस्त
नहीं रहा,
ना ही दुश्मन — बस
देख रहा हूँ।
तेरे बहाव में बहा
करता था,
अब किनारे बैठकर ठहर रहा हूँ।
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