"मन का खेल"
मन कहता है चल,
वहाँ कुछ है,
जहाँ न पहुँचा कोई
राहों से।
मैं चलता जाता हूँ
चुपचाप,
टूटे हुए अपने ही
चाहों से।
मन कहता है — ये
कर, वो कर,
तू रुक मत, सोचना
पाप है।
मैं थकता हूँ, पर
मान लेता,
कि मन ही मेरी
ज़िंदगी का आप है।
वो मीठी बातें, झूठे
सपने,
कभी मोह, कभी डर
की चादर।
मन ने बाँध रखा
यूँ मुझको,
जैसे डोरी से बंधा
कोई बादल।
कभी कहा — यह तेरा सुख
है,
कभी कहा — ये तेरा धर्म।
मैं समझा सब कुछ
उसका खेल,
पर जीता रहा वो
हर मर्म।
फिर एक दिन बैठा
चुप होकर,
पूछा मन से — “क्यों
करता यूँ?”
वो हँसा — “तू ही तो
देता साथ,
मैं तो बस तेरा
ही रूप हूँ।”
अब मैंने देखा, समझा गहराई,
मन को नहीं मारना
है, साधना है।
जो भीतर जगे वो
जाग्रत हो,
और राह विवेक की
साधना है।
अब मन भी साथी
है मेरे,
न मालिक, न बंदी, न
ग़ुलाम।
मैं अब चलता हूँ
अपने भीतर,
जहाँ न प्रश्न है,
न कोई नाम।
No comments:
Post a Comment