मज़दूरी बन गई है ज़िंदगी
जब नौकरी
मज़दूरी और मजबूरी बन जाती है,
तो आदमी
खुद से बड़ी लड़ाई लड़ जाता है।
रोज़ सुबह
अपनी थकी हड्डियों को मनाता है,
आँखों में धूप नहीं,
और ज़िम्मेदारियों का बोझ दिल पर फिर से धड़क उठता है।
वक्त के कोड़ों से
पीठ पर निशान पड़ते जाते हैं,
पर घर के चेहरों की मुस्कान
उसे फिर खड़ा कर जाते हैं।
सीने में जलते अरमान
राख में बदल जाते हैं,
पर पेट की आग—
हर चाहत को निगल जाती है।
मज़बूर ज़िंदगी
धीरे-धीरे यूँ चलती है,
मानो किसी ने
पैरों में अदृश्य बेड़ियाँ डाल दी हों।
पर फिर भी
आदमी हार नहीं मानता,
टूटने के बाद भी
हर सुबह खुद को बार-बार बनाता है।
क्योंकि
रोटी की ख़ातिर झुकना
कमज़ोरी नहीं,
जीवन की ज़िम्मेदारी का
सबसे बड़ा साहस कहलाता है।