Sunday, 29 June 2025

मैं एक शिक्षक हूँ — सीढ़ियाँ मेरी राह हैं

 मैं एक शिक्षक हूँ — सीढ़ियाँ मेरी राह हैं

हर छात्र की आँखों में सपना देखता हूँ,

उनके मन में उजाला भरता हूँ।

सीढ़ियाँ जो मुश्किल लगती थीं पहले,

अब उन्हें पार करना सिखाता हूँ।


हर गिरावट को समझता हूँ मैं,

हर दर्द में साथ चलता हूँ।

कभी हौंसला बन जाता हूँ,

जीवन की राह में मैं रोशनी हूँ,

उनके सपनों का पुल बनता हूँ।

सीढ़ियाँ चाहे जितनी भी ऊँची हों,

मैं उन्हें पार करने का तरीका बताता हूँ।


कभी थकता नहीं, कभी रुकता नहीं,

क्योंकि हर जीत में मेरी भी जीत है।

मैं एक शिक्षक हूँ, एक राह दिखाने वाला,

सीढ़ियाँ मेरे साथ, हर कदम साथ चलती हैं।

मन की उलझन, दिल की आवाज़

 मन की उलझन, दिल की आवाज़


जब नहीं मिलता किसी सवाल का हल,

और मन हो जाए एक खाली-सा पल।

जब कोशिशें लगें सब बेकार,

और आँखों में भर आए एक लाचार विचार।


सोचते हैं — क्या मैं ही गलत हूँ?

या फिर रास्ता ही कहीं अधूरा-सा चलता हूँ।

हर जवाब जैसे छुप गया हो कहीं,

और मैं… बस उलझा रह गया तन्हा यहीं।


कभी खुद से सवाल करता हूँ —

क्या सच में इतना कमजोर हूँ मैं?

या शायद ज़िंदगी आज फिर से

एक सबक सिखा रही है नए रंग में।


चुपके से माँ की वो आवाज़ याद आती है,

"बेटा, मुश्किलें भी गुज़र जाती हैं…"

पापा की वो नज़रें — बिना कहे कह जाती हैं,

"हार नहीं माननी, उम्मीद बाकी है…"


तो उठता हूँ फिर से, टूटा नहीं हूँ अभी,

रास्ता भले थका दे, राही थका नहीं कभी।

क्योंकि हर समस्या के उस पार भी एक सवेरा है,

हर आंसू के पीछे भी एक बसेरा है।

कुछ कुत्ते हमेशा भौंकते हैं (दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक कविता)

 कुछ कुत्ते हमेशा भौंकते हैं

(दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक कविता)


कुछ कुत्ते हमेशा भौंकते हैं,

शोर मचाते हैं, जब हम चलते हैं।

वे आवाज़ें भीतर की कोई असुरक्षा हैं,

जो खुद को साबित करने को मजबूर हैं।


हर भौंकना एक डर का साया है,

अधूरी उम्मीदों का ग़म छुपाया है।

वे अपने अंदर की आवाज़ से लड़ते हैं,

इसलिए बाहर की दुनिया से खौफ खाते हैं।


पर ये समझना ज़रूरी है हमें,

कि भौंकना उनकी अपनी एक पुकार है।

वे हमें रोक नहीं सकते सच के रास्ते से,

बस अपने अंदर की बेचैनी से लड़ते हैं।


जब भी कोई मंज़िल की ओर बढ़ता है,

उसके पीछे कई सवाल भी चलते हैं।

कुछ सवालों का जवाब तो वक्त देता है,

और कुछ भौंकने वालों की खामोशी सिखाती है।


हमारे मन के भी कई ‘कुत्ते’ हैं,

जो डर, चिंता और शंका में भौंकते हैं।

अगर हम उन्हें समझकर शांत कर दें,

तो भीतर की राहें फिर से साफ़ हो जाएँ।


तो भौंकने दो उन्हें,

लेकिन सुनना अपनी आंतरिक आवाज़ को।

जो कहती है — बढ़ते रहो, रुकना नहीं,

अंधेरे से न डरना, उजाले की ओर बढ़ना है।



जीवन की राह में आवाज़ें बहुत होंगी,

पर हर भौंकने वाले में छुपी होती है एक कहानी।

समझो, सहो, फिर भी चलो अपने लक्ष्य की ओर,

क्योंकि असली जीत होती है — मन की शांति और आत्मविश्वास की दौड़।

वो जो मुझे पसंद नहीं होता है,

 वो जो मुझे पसंद नहीं होता है,

कभी-कभी वही रास्ता सही होता है

जिस पर कदम उठाने से डर लगता है,

वही मंज़िल तक पहुंचाता है हमें।


वो जो मुझे समझ में नहीं आता है,

अक्सर वही जीवन का नया संदेश होता है।

जब मन छुपा चाहता है अपनी आवाज़,

वही सच में मेरा सच्चा परचम होता है।


वो जो मुझे डराता है, रुलाता है,

वही मुझे मजबूत बनाता है।

मेरे भीतर की छिपी हिम्मत को जगाता है,

और मुझे नयी उड़ान भरना सिखाता है।


कभी-कभी जो नापसंद लगता है,

वो खुदा का कोई बड़ा उपहार होता है।

जिससे मैं सीखता हूँ, समझता हूँ, बढ़ता हूँ,

और अपने सपनों के करीब होता हूँ।


तो अब मैं उसे भी अपनाऊंगा,

जो मुझे पसंद नहीं होता है।

क्योंकि वही मेरी असली पहचान है,

और वही मेरी सबसे बड़ी ताकत होती है।


जीवन — एक चुनौती, एक भ्रम, एक दर्पण

 जीवन — एक चुनौती, एक भ्रम, एक दर्पण

(दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक कविता)


जीवन,

कभी-कभी लगता है एक गहरा मज़ाक।

जैसे कोई अभिनेता,

जिसे मंच पर धकेल दिया गया हो

बिना स्क्रिप्ट, बिना किरदार,

बस — “जियो” कहकर।


हम हर दिन अर्थ ढूँढते हैं,

हर बात में कुछ संकेत,

कुछ "क्यों", कुछ "कब", कुछ "कहाँ" —

मानो ब्रह्मांड कोई उत्तर देने को बैठा हो।


पर सच यह है —

ब्रह्मांड मौन है।

ना उसे हमारी पीड़ा से फर्क पड़ता है,

ना हमारी प्रार्थनाओं से।


यह मूर्खता लगती है —

प्रेम में पड़ना,

सपने देखना,

योजनाएं बनाना —

जब हम जानते हैं कि अंत अटल है।


फिर भी…

मनुष्य वही है

जो इस मूर्खता को भी जीने योग्य बना देता है।


क्योंकि मनुष्य केवल जीव नहीं,

वो सचेत भ्रम है —

जो जानता है कि सब व्यर्थ है,

फिर भी मुस्कुराता है।


कभी-कभी जीवन से कुछ नहीं हो सकता,

और शायद यही सबसे बड़ा सत्य है।

पर जब हम इस निरर्थकता को स्वीकार करते हैं,

तो एक अजीब-सी शांति जन्म लेती है।


शांति —

जो किसी समाधान से नहीं,

बल्कि उस स्वीकार से आती है कि

हमें कुछ "करना" नहीं, बस "देखना" है।


 मौन में छिपी आज़ादी

अर्थहीनता से डरने की नहीं,

उसे अपनाने की ज़रूरत है।

क्योंकि जब कुछ भी स्थायी नहीं,

तो सब कुछ संभव है।

जीवन — एक मूर्खता भरी चुनौती (दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक चिंतन-कविता)

 जीवन — एक मूर्खता भरी चुनौती

(दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक चिंतन-कविता)


जीवन,

एक मूर्खता भरी चुनौती लगता है कभी-कभी।

जैसे किसी और ने रच दिया हो ये खेल,

और हमें फेंक दिया हो बिना निर्देश के,

"जा, जी ले — जैसे भी समझ आए।"


हर दिन उठते हैं एक पहेली के साथ,

हर निर्णय — एक अनिश्चितता का द्वार।

हम सोचते हैं कि हम चुनते हैं,

पर क्या सच में?

या बस घटनाओं की धूल में भटकते हैं?


कभी लगता है —

हम खुद ही अपना विरोधाभास हैं,

जो चाहते हैं, उससे डरते हैं,

और जो नहीं चाहिए, उसी में उलझते हैं।


मनोविज्ञान कहता है —

हमारा मन भविष्य की कल्पनाओं और अतीत की स्मृतियों में कैद है।

वर्तमान?

वो तो बस एक क्षणिक सन्नाटा है,

जिसे हम अनदेखा कर देते हैं।


कभी-कभी लगता है —

इस जीवन का कुछ नहीं कर सकते।

ना इसे पूरी तरह समझ सकते,

ना पूरी तरह बदल सकते।


और शायद…

यही समझ आरंभ है शांति का,

कि जीवन को "ठीक" नहीं करना,

उसे देखना है — बिना भागे, बिना जज किए।


नियंत्रण एक भ्रम है,

सार्थकता एक कथा।

पर चेतना —

वो मौन साक्षी है,

जो कहती है:

“होने दो — तुम देखो।”


 अंत में स्वीकार:

शायद जीवन का सार यही है —

कि हम स्वीकार कर सकें उसकी अनिश्चितता, उसकी मूर्खता,

और फिर भी

हर सुबह उठें —

जैसे कोई बच्चा जो जानता है कि उसे सब नहीं पता,

पर फिर भी खेलना चाहता है।


जीवन — एक महामूर्ख की गाथा है।

 जीवन — एक महामूर्ख की गाथा है।

जो जितना जानता है,

उतना ही उलझता है।

जो जितना सोचता है,

उतना ही डूबता है।


हम दौड़ते हैं अर्थ की तलाश में,

जैसे रेत के टीले पर महल बनाना चाहते हों।

हम रोशनी चाहते हैं,

पर आँखें बंद कर लेते हैं,

कि कहीं सच की चुभन ना हो जाए।


हम खुद को ज्ञानी मानते हैं —

पर भूल जाते हैं कि

जो सत्य है,

वो न विचार में समाता है,

न भाषा में ठहरता है।


महामूर्ख वही है — जो सवाल पूछता है,

फिर खुद ही उन सवालों के जवाब गढ़ता है,

और उन पर ही विश्वास कर लेता है।


हम दुखी हैं क्योंकि

हमने जीवन से कुछ "होने" की उम्मीद पाल ली।

जैसे जीवन कोई डील हो —

देना-लेना, कारण-परिणाम।


लेकिन जीवन तो

एक मूक दर्शक है,

जो घट रहा है — बिना किसी पक्षपात,

बिना किसी वादे के।


और फिर भी,

हम इस महामूर्खता में जीते हैं

— हर दिन —

जैसे यह संसार हमारे लिए बना हो।

जैसे कोई देवता हमें देख रहा हो,

और हमारी योजनाओं पर ताली बजा रहा हो।


 लेकिन फिर भी...

यही महामूर्खता,

कभी-कभी कविता बन जाती है।

एक प्रेम बन जाती है।

एक बच्ची की हँसी में खो जाती है।

या अकेलेपन की रात में

एक मोमबत्ती-सी टिमटिमाती है।


तो क्या हम सच में मूर्ख हैं?

या वही "महामूर्खता"

हमें मनुष्य बनाती है?


 

शायद यही सबसे बड़ा ज्ञान है —

कि हम कुछ नहीं जानते,

और यही स्वीकार कर पाना ही

बुद्धत्व की पहली सीढ़ी है।